Tuesday 17 December 2013

खुशिओं ने दिए ज़ख्म (Sad Love Story)

खुशिओं ने दिए ज़ख्म 

         हर लड़की का सपना होता है कि जो उसे प्यार करे वो स्मार्ट दिखे।  वो जब सामने आये तो दिल करे उसे देखते रहें।  पर मैं ऐसा नही चाहती थी।  और शायद इसीलिए कभी कभी नाराज़ हो जाते थे तुम मुझसे।
         "तुम क्यों मुझे ढीले कपड़े पहनने को कहती हो? ये चप्पू की तरह बाल तुम्हें अच्छा लगता है ? यार तुम शहरी लड़की होकर भी देहाती होना पसंद करती हो। " कभी-कभी झल्लाकर अपने दिल की भड़ास निकल लिया करते थे तुम।
         "ताकि तुम्हे किसी कि नज़र न लगे। " और ये कहते हुए मैं हंसने लगती।  तब तुम्हे लगता कि बात कुछ और है जो मैं बताना नहीं चाहती।  फिर तुम जानने के लिए जिद्द भी नहीं करते। बहुत नार्मल थे तुम।  हर कड़वे बात को एक सुखद अहशास में पिरो देते थे। पर सच्च यही था।
           13 साल की थी जब मां - पापा की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।  मामा ने मुझे सम्भाला, उनके कोई बच्चे नहीं थे और मामी भी उन्हें छोड़कर जा चुकी थी।  इसलिए मामा का सारा प्यार मुझे ही मिला।  पर ये थोड़ी खुशियाँ भी आयी थी अपनी पंख लेकर जो उड़ी सो उड़ती चली गयी।  मामा को हृदय रोग था और वो भी ज्यादा दिन साथ नहीं रहे।  उनके गुजरने के कुछ दिन पहले एक कॉल सेंटर में जॉब करने लगी थी।  तब मेरे माथे को नौकरी से कहीं ज्यादा जरुरी थी किसी अपनों का हाथ।  और फिर तुम मिले।  अब मैं इस ख़ुशी को खोना नहीं चाहती थी।  नहीं चाहती थी कि तुम्हें कोई और लड़की पसंद कर ले, और फिर तुम्हें मुझसे छीन ले।  अब तुम इसे जो समझो।
         अब तुम हमेसा ही आने लगे वही ढीला - ढाला सर्ट और चप्पू की तरह बाल बना कर।  मैं जानती थी कि तुम्हे अच्छा नहीं लगता होगा। पर मेरी ख़ुशी की त थी तो तुम कैसे नहीं करते।
         मुझे याद है जब पहली बार तुम्हे देखी थी। घुंघराये हुए थोड़े लम्बे बाल और आँखों पर पतली फ्रेम वाली चस्मे में एक कवी की तरह लग रहे थे तुम।  पर काले जींस और ब्लू शर्ट में एक सुपरस्टार से कम भी नही दिख रहे थे।
         मुझसे ही आकर पूछे थे तुम....  "एलियन बिल्डिंग किस तरफ है ?"
         तब मैं मजाकिये मूड में ज़वाब दी थी… "आप उसी के निचे खड़े हैं."
         बिल्कुल ही सरमा गए थे तुम।  तुमने ये जानबूझकर पूछा था या सच्च में तुम जानते नहीं थे, ये तो मैं नहीं जानती पर तुम्हारा शरमाने का अंदाज़ तुम्हारे अच्छे इंसान होने का संकेत दे रहे थे।
         उसी कॉल सेंटर में तुम इंटरव्यू देने आये थे जहाँ मैं काम करती थी। देखने से ही लग रहा था कि तुम इंटरव्यू देने आये हो।  फिर न जाने क्यों तुम्हारी सफलता के लिए खुदा की इबादत में मेरे हाथ उठ गए थे।
         अच्छा लगा था जब दो दिन बाद वही चेहरा सामने वाली टेबल पर दिखा और फिर हर दिन दिखने लगा।  तुम्हारी सिलेक्शन हो चुकी थी।
         मेष वाले हर स्टाफ के लिए लंच एक बजते - बजते पहुँचा जाते थे। डेढ़ बजे टिफिन होती थी। सारे स्टाफ एक साथ बैठकर लंच करते। शिवाये मेरे। धीरे -धीरे उन लोगों में तुम भी शामिल हो गए।
         "अगर आप हम लोगों के साथ लंच करेंगी तो हम आपका खाना छीन नहीं लेंगे।" अचानक ही एक दिन ये कहते हुए मेरी टिफिन बॉक्स लेकर उस तरफ चले गए थे तुम।
         मुझे अस्चर्य लगा था। अभी महीनें दिन भी नहीं हुए थे तुम्हारे आये और इतना कैसे सबों में घुल-मिल गए थे ? अजीब भी लगा था तुम्हारे उस ब्यवहार से। पर कुछ बोल भी नहीं पायी थी मैं। क्योंकि पहली बार यहाँ किसी ने अपनापन दिखाया था। आज वर्षों बाद किसी के कारण थोड़ी मुस्कुराहट छलकी थी मेरे चेहरे पर।
         तुम्हारा मानना था… "जिंदगी जब भी मुस्कुराने का मौका दे, दिल से मुस्कुरावो, क्या पता ख़ामोशी कब लबों पे दस्तक दे दे।"
        कोई बताया होगा तुम्हें, शायद इसलिए ही तुम्हे मेरे तन्हाईओं से प्यार हो गया था। जब देखो मुझे हँसाने की कोशिश करते रहते थे तुम। और शायद मुझे भी तुम्हारे उस हमदर्दी से, तुम्हारे अपनेपन से प्यार हो गया था।  मैं जानती थी तुम्हारे अल्हड़पन को, तुम कभी किसी एक डाल पर टिके नहीं रह सकते थे। तितली की तरह था तुम्हारा मन जो हर जगह उड़ते रहने वाला था। तुम ऐसे थे कि हर किसी के चहेते बन गए थे। रही प्यार करने की तो, वो बुद्धू ही होगी जो तुमसे प्यार करना नहीं चाहेगी।
         तब न जाने कैसे खुदा को मुझपे तरस आया था। जो शायद मेरे खामोश दिल को सुनने के लिए तुम्हें भेज दिया था। तुम सिर्फ मेरे थे, और सिर्फ मेरे। मेरी ही खुशियों के खातिर जीने लगे थे।
         तुम अपने घर गए हुए थे। माता - पिता को राजी करने हमारी शादी के लिए। फ़ोन पर बता रहे थे… "राधिका, सब राजी हैं और तुमसे सब मिलना चाहते हैं। उन्हें बहुत दुःख हुआ ये जान कर कि तुम्हारे माँ-पापा नहीं हैं। मैं कल आ रहा हूँ तुम्हें लेने। सबों से मिल लेना। अब आकर बात करता हूँ।"
         मैं बहुत खुश थी। अब मेरे माँ-पापा के न होने का ज्यादा दुःख न था, क्योंकि उन दुखों को बाँटने के लिए तुम जो आ गए थे मेरी जिंदगी में। बहुत प्यार हो गया था मुझे मेरी जिंदगी से। इतना प्यार कि मैं अपनी जिंदगी की तक़दीर लिखने बैठ गयी, क्योकि तुमने इस जिंदगी को अनमोल जो बना दिया था। तुम हमेशा कहते थे कि जिंदगी जब भी मुस्कुराने का मौका दे जरुर मुस्कुराओ, पर अब मैं ही जिंदगी को मजबूर कर दूंगी मुस्कुराता हुआ पल देने के लिए।
         देर रात तक तुमसे बाते हुई। तुम्हे भूख लगी थी और जिस ट्रेन से तुम आ रहे थे वो अभी आधे घंटे लेट थी। वहीँ किसी होटल में खाना खाने लगे थे तुम। कहने लगे मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज है, शायद ज्यादा बात नहीं हो पायेगी। फिर तुम्हारा फ़ोन बंद हुआ जो रात तक नहीं आया।
        शुबह-शुबह मेरा फ़ोन बजने लगा तुम्हारे ही सेट किये हुए गाने के साथ .... "मैं शेहरा बांध के आउंगा मेरा वादा  है।"
        तुम्हारी बहन शिखा का फ़ोन था, शायद तुमने ही मेरा नंबर दिए होगे उसे। पूछ रही थी… "शेखर भैया पहुँच गए?"
        "नहीं, अभी तक तो नहीं, पर जैसे ही आयेंगे मैं फ़ोन कर दूंगी।" ये कहते हुए मैंने टीवी स्टार्ट की और रिमोट लेकर सोफे पर बैठ गयी। काफी शोर के साथ टीवी का स्क्रीन साफ हुआ। कोई न्यूज़ चैनल था जो किसी ट्रेन एक्सीडेंट की खबर दे रहा था। मैं चैनल बदलने ही वाली थी कि एक्सीडेंट हुई ट्रेन का नाम सुनकर सन्न रह गई। ये तो वही ट्रेन थी जिससे तुम आ रहे थे, फ़ोन पर ही तुमने बताया था ट्रेन का नाम, जो आधे घंटे लेट थी।
         खुशियों ने आज फिर एक जख्म दिए थे मुझे। जिंदगी, जिसकी तक़दीर मैं लिखने चली थी, आज खुद एक कोरा कागज़ बन गयी थी।
         जिंदगी मुझे माफ करना, मैं तुमसे ज्यादा अपने शेखर से प्यार करती हूँ।  मैं जा रही हूँ अपने शेखर के पास।
         खाना खाने के चक्कर में मेरी ट्रेन छूट गयी थी। रास्ते में पता चला था उस ट्रेन हादसे कि खबर, सुन कर बहुत डर लगा था। मैं राधिका नहीं शेखर हूँ। ट्रेन हादसे के चलते उस तरफ कि सभी लाइने ब्यस्त थी। एक दिन बाद अपने क्वॉटर पहुँच पाया मैं। जल्दी-जल्दी फ्रेश होकर राधिका के पास आया। उसके घर के बाहर बहुत भीड़ थी। उसके कमरे में गया तो देखा टीवी जाली हुयी थी। उसके फुटे स्क्रीन में राधिका के हाथ घुसे हुए थे। वहीँ सोफे पर एक डायरी पड़ी मिली। राधिका के ही लिखावट थी।
         वो तो नहीं रही पर उसकी डायरी में लिखे उसके दास्तान की ये पंक्तियां इस बात की सुबूत थी कि खुशियों ने कितने जख्म दिए थे उसे।

                                                                                                                        --धीरज चौहान