डर
तुम जो न हो
ये महफ़िल वीरान है
और सूना है
ये कैनवास
तेरी तस्वीर बिन
ये रौशनी की झलक
शीशे की चमक
याद दिलाते हैं मुझे
मुलाकातों के दिन
ठहरी पड़ी है
साँसों की सरगम
और मंद ये फ़िज़ायें
ये मस्त बहार
जमने को है अब
मेरे तम्मनाओं के ओस
होने लगी डगमग सी
दीये आशाओं के
अब तो डर है
कहीं ये भी बूझ न जाए।।
- धीरज चौहान
तुम जो न हो
ये महफ़िल वीरान है
और सूना है
ये कैनवास
तेरी तस्वीर बिन
ये रौशनी की झलक
शीशे की चमक
याद दिलाते हैं मुझे
मुलाकातों के दिन
ठहरी पड़ी है
साँसों की सरगम
और मंद ये फ़िज़ायें
ये मस्त बहार
जमने को है अब
मेरे तम्मनाओं के ओस
होने लगी डगमग सी
दीये आशाओं के
अब तो डर है
कहीं ये भी बूझ न जाए।।
- धीरज चौहान