Saturday 17 May 2014

ठण्डी रोटी

       एक लड़का था। माँ ने उसका विवाह कर दिया। परन्तु वह कुछ कमाता नहीं था। माँ जब भी उसको रोटी परोसती थी, तब वह कहती कि बेटा, ठण्डी रोटी खा ले। लड़के की समझ में नहीं आया कि माँ ऐसा क्यों कहती है। फिर भी वह चुप रहा। एक दिन माँ किसी काम से बाहर गयी तो जाते समय अपनी बहू (उस लड़के की पत्नी) को कह गयी कि जब लड़का आये तो उसको रोटी परोस देना। रोटी परोसकर कह देना कि ठण्डी रोटी खा लो।
       बहू ने वैसा ही कहा तो उसका पति चिढ़ गया कि मान तो कहती ही है, यह भी कहना सिख गयी।  वह अपनी पत्नी से बोला - 'बता, रोटी ठण्डी कैसे हुई? रोटी भी गरम है, दाल-साग भी गरम हैं, फिर तू ठण्डी रोटी कैसे कहती है? वह बोली-'यह तो आपकी माँ जाने।' माँ ने मुझे ऐसा कहने के लिए कहा था।
       'मैं रोटी नहीं खाऊंगा। माँ तो कहती ही थी, तू भी सिख गयी।' ये कह कर लड़का चला गया।
       माँ घर आयी तो उसने बहू से पूछा कि क्या लड़के ने भोजन कर लिया? बहु बोली - 'उन्होंने तो कुछ खाया ही नहीं, उलटा नाराज़ हो गये ! माँ ने लड़के से पूछा तो वो कहने लगा - 'माँ, तू तो रोजाना कहती थी कि ठण्डी रोटी खा ले और मैं सह लेता था, अब यह भी कहना शुरू कर दी। रोटी तो गरम होती है, तू बता कि रोटी ठण्डी कैसे है? माँ ने पूछा - ठण्डी रोटी किसको कहते हैं? वह बोला - सुबह को बनायीं हुई रोटी शाम को ठण्डी होती है। ऐसे ही एक दिन की बनायीं हुई रोटी दूसरे दिन ठण्डी होती है। बसी रोटी ठण्डी और ताजी रोटी गरम होती है।
      तब माँ ने कहा - बेटा, अब तू विचार करके देख। तेरे बाप की कमाई है, वह ठण्डी, बासी रोटी है। गरम, ताजी रोटी तो तब होगी, जब तू खुद कमाकर लाएगा। लड़का समझ चूका था।

-गीताप्रेस, गोरखपुर 

Friday 16 May 2014

भारत एक बार फिर आज़ाद हुआ विदेशी (सोनिया) हुकूमत से। 
क्या आप सहमत हैं ?

Thursday 15 May 2014

इंद्र की पोशाक

एक सीधे-सरल स्वभाव के राजा थे। उनके पास एक आदमी आया, जो बहुत होशियार था। उसने राजा से कहा - अन्नदाता! आप देश की पोशाक पहनते हैं। परन्तु आप राजा हैं, आपको तो इन्द्र की पोशाक पहननी चाहिए। राजा बोला - इंद्र की पोशाक ! वह आदमी बोला - 'हाँ, आप स्वीकार कीजिये तो हम लाकर दे देँ !' राजा को भी ज्यादा आकर्सक दिखने का ख्याल मन मे आने लगा, बोला - 'अच्छा ले आओ। हम इंद्र पोशाक पहनेंगे। ' वह आदमी बोला - 'पहले आप एक लाख रूपये दे दें , बाकि रूपये बाद मे लेंगे। आप रूपये देंगे, तभी इन्द्र कीं पोशाक आएगी। ' राजा ने रूपये दे दिये।
दूसरे दिन वह आदमी एक बहुत बढ़िया चमचमाता हुआ बक्सा लेकर आया और सभा के बिच मे रख दिया।  वह बोला - 'देखिये महाराज ! यह इन्द्र की पोशाक है। यह हरेक मनुष्य को दिखती नहीं। जो असली माँ-बाप का होगा, उसको तो यह दिखेगी, पर कोई दुसरा बाप होंगा तो उसको यह पोशाक नहीं दिखेगी।'
अब उस आदमी ने बक्से मे से इन्द्र की पोशाक निकालने का अभिनय शुरु किया और कहने लगा कि यह देखो, यह पगड़ी कैसी बढ़िया है ! यह देखो, धोती कैसी बढ़िया है ! लोग कहने लगे कि  हाँ-हाँ, बहुत बढ़िया है। वास्तव में किसीको भी पोशाक दिखी नही। पोशाक थी ही नहीं, फिर दिखे कैसे ? पर कोई कुछ बोला नहीं; क्योंकि अगर यह बोलते कि पोशाक नहीँ दिखती तो दूसरे सोचेंगे कि ये असली माँ-बाप के नहीं हैं। कइयों को यह वहम हो गया कि शायद हम असली माँ-बाप के न हों क्योंकि हमे ये क्या पता। पर दूसरे को तो दिखती ही होंगी। इस तरह सबने हाँ-में-हाँ मिला दी। राजा भी चुप रहे। अब उस आदमी ने राजा को इन्द्र कीं पोशाक पहनानी शुरु कीं कि पह्ली धोती उतारकर यह धोती पहने, यह कुरता पहने, यह पगड़ी बांधें आदि आदि। परिणाम यह हुआ कि राजा जैसे जन्मे थे, वैसे (निर्वस्त्र) हो गये। उसी अवस्था में राजा रानीनिवास मे चले गये। रानियों ने राजा को देखा तो कहा कि आज भांग पी लीं है क्या ? कपडे कहाँ उतार दिये ? राजा बोला - तुम असली माँ-बाप की नहीं हो, इसलिए तुम्हे दिखता नहीं है। यह इंद्र की पोशाक है। रानियों ने कहा-महाराज ! आप भले ही इन्द्र की पोशाक पहनें , पर कम-से-कम धोती तो अपने ही देश की पहिनिये।

-गीताप्रेस, गोरखपुर

अतः, दोस्तो जरा बच के रहियेगा, कहीं विदेशी सभयता के चक्कर मे आपकी अपनी सभ्यता-संस्कृति न आपका मज़ाक उड़ा बैठे।


Monday 12 May 2014

हालात चाहे जैसे भी हों, जींदगी अपनी रास्ता ढूँढ़ लेतीं है।

न जाने कैसा आत्मविस्वास था उसमे। जो भी करता पूरी ईमानदारी और मन से करता। पिताजी उसे एक कील भी गाड़ने को कहते तो पुरे इत्मीनान से सब काम छोड़ कर करता। मानो वह कील नहीं, उसकी भविष्य की कूंजी है और पीताजी के  दिए हुये आदेश उस कूंजी का ताला। कहीं कील न गड़ी तो उसका भविष्य के ताले मे ज़ंग न लग जाये और फिर वो कभी न खुले। काम चाहे घर का हो या खेत-खलिहान का। किसी भी काम के लिए कभी वो न नहीं कहा। किसी काम में यदि वो एक बार लग गया तो उसे ख़तम करके ही कहीं और जाता। पिताजी कई मरतबा उसे कहे भी - 'जुगु तू घर किसलिए जाता है ? यहीँ खा-पीकर सो जाया कर।'
पहले पिताजी को मालूम न था, मैने ही कहा- 'बाबूजी, जुगु यहाँ से जानें के बाद घर पर पढ़ने बैठ जाता है। इस बार उसे सातवीं का इम्तिहान देना है।'
और फिर पिताजी उसे कभी रोकने न लगे। हाँ, उन्होंने इतना जरुर कहा था -'तुझे जब भी वक़्त मिले बड़े के साथ बैठ जाना और कुछ कमे तो कह्ना।
वो हमारे घर का नौकर न था। पर काम में ऐसे लगा रहता जैसे नौकर ही हो। हमने उसे नौकर कभी न समझा। उसके ब्यवहार में ही ऐसा कुछ शामिल न था कि क़ोई भी उसे नौकर समझे। वैसे तो पुरे गावों के लिये बस मजदूर था। परन्तु पक्का स्वाभिमानी था। तीन सेर चावल जो कि एक दिन की मजदूरी थी, इससे अधिक तीन चावल की भी लालच न करता। गरीब का दंस वो बचपन से झेल रहा था। पर गरीब होने का उसे जरा भी अफ़सोस न था।
मुझे याद है जब उसकी मा मरी थीं। मुस्किल से दो-चार महिने बीते होंगे उसे अपनी मा का दुध छोड़े हुए। जीवन मृत्यु का आभास भी न हुआ होगा। और अनाथ पहले हो गया।






Monday 5 May 2014

प्पू पास हो गया

जब पप्पू दस साल का था 
पड़ोस वाली आंटी की बेटी 
उसे भईया बुलाती थी
तब पप्पू भी भैया-दूज की लड्डू खाकर 
उसे बहन मान लिया था
जब पप्पू और उसके दोस्तों के झुण्ड 
10-12 साल वाली बचपना में झूमता था 
तब वो पड़ोस वाली आंटी की बेटी भी 
उसके साथ भाई-बहनो वाली 
गठबंधन में बंध जाती थी
यही नहीं 
वो बगीचे वाली तालाब मे भी 
सब साथ छुआ-छुपी का खेल खेलते थे
घर के बरामदे पर
गुड्डे-गुड़ियों का खेल भी सुहाने होते थे 
दूल्हा-दुल्हन का मतलब वो नहीं जानते थे पर 
गुड्डे को दूल्हा और गुडिये को दुल्हन बनाते थे 
सब के मन साफ थे 
आत्मा भी निश्छल गंगा की तरह पवित्र था 
पर तब पप्पू दस साल का था 
आज पप्पू दुल्हन का मतलब समझने लगा है 
पड़ोस वाली आंटी के बेटी को ही दुल्हन मानने लगा है 
और वो भी तालाब मे साथ तो नहीं नहाती पर 
उसी बगीचे मे छुप-छुप कर मिलने लगी है 
अब गुड्डे-गुड़ियों की जगह गुलाब ने ली है 
बरामदे की जगह इंटरनेट ने ले ली है 
आज पप्पू 25 साल का हो गया है 
फेसबुक पर खाश हो गया है 
क्योंकि अब पप्पू पास हो गया है..

-धीरज चौहान