Saturday 8 August 2015

आपकी इस सहयोग के लिए धन्यवाद

आपकी इस सहयोग के लिए धन्यवाद 

       गर्मी की तपिश और लोगों के शरीर से बह रहे पसीने की सड़ी हुई सी बदबू के साथ स्टेशन परिसर की महक कुछ ज्यादा ही लोगो को अपनेपन का एह्शास करा रही है। केसरिया रंग का भगवा वस्त्र धारण किये एक महात्मा जी वहीँ पास में बैठ कर भोजन कर रहें हैं। उस पोलिथिन को जिसमे कुछ रोटी है , ऊपर से आधी मोड़कर कटोरे का आकर दे दी है उन्होंने। सब्जी वाले पोलिथिन को भी इसी तरह मोड़कर एक छोटी कटोरी का रूप दे दिया गया है। मक्खियाँ भी इस दावत के मजे ले रही हैं। रह-रहकर कुछ मक्खियाँ उड़कर दूर चली जा रही हैं। उसके साथी, सगे-सम्बन्धी कहीं छूट न जाएँ। कुछ मक्खियाँ खाने के साथ चटनी-आचार व किसी जायके का स्वाद लेने के लिए रेल की पटरियों पर बिखरे पड़े रसीले मल का इस्तेमाल कर रही  हैं।  उनके पानी के लिए महात्मा जी के ललाट से निकल रहे पसीने की मात्रा ही काफी है। महात्मा जी अब अपने हाथ हिलाना बंद कर दिए हैं। सायद हिलाते-हिलाते उनके हाथ थक गए हों या फिर हो सकता है भूखी मक्खियों पर अपनी दया लूटा रहे हों। महात्मा जी रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े कर सब्जी के साथ इस तरह खा रहे हैं मानो अपनी लम्बी सी मुछ और दाढ़ी के बीच कुछ छुपा रहे हों। कभी-कभी बीच-बीच में अपनी श्यामवर्ण नमकीन अँगुलियों को चूस लिया करते हैं। ट्रेनों के आवागमन से उड़ने वाली पटरियों के धुल भोजन को और भी स्वादिस्ट बना रहे हैं। 
         बैठने के लिए उस प्लेटफार्म पर बेंच नहीं है। फिर भी यात्रियों में सन्तुस्टी है कि कम से कम खड़े रहने के लिए प्लेटफार्म तो है। क्या हो जायेगा यदि घंटे आधे खड़े रहेंगे? फिर घर पहुँचकर आराम ही तो करना है। प्लेटफार्म के बीच में इस छोर से उस छोर तक बिस्कुट, नमकीन, चाय और कोल्ड्रिंक के दुकानों की लम्बी कतार है। कहीं थोड़ी जगह बची है तो वहां भी खीरे-ककड़ी और मूंगफली वाले अपनी टोकरी जमा रखें हैं। हाँ, रेलवे वालों ने प्लेटफार्म पर दो-चार पीपल और पाकड़ के बृक्ष लगा कर यात्रियों पर एहसान जरूर किया है। कुछ उन पेड़ो के छाँव में खड़े हैं तो कुछ दुकान के दिवार से आ रहे दो फिट परछाई से सटे बुत बने  हैं।
          ऊपर हार्वेस्टर वाली छत से एक बोर्ड लटक रहा है। लिखा है "स्टेशन को साफ और स्वच्छ रखने में हमे सहयोग करें।" उसी बोर्ड के निचे एक डस्टबिन है जो भर चूका है और उस पर मक्खियाँ खूब मजे से नृत्य कर रही हैं। केले और आम के छिलके से निकलने वाली खुशबू भी दूर उड़ रही मक्खियों को निमंत्रित करने में अहम भूमिका निभा रही है। डस्टबिन में अब और जगह नहीं है। लोग केले-आम के छिलके, बिस्कुट निगल कर उसकी प्लास्टिक, चाय की प्याली और पानी की बोतलें वहीँ निचे संजोते जा रहे हैं।
         और करें भी क्या? हो सकता है लोग कुछ और करें यदि हार्वेस्टर वाली छत से लटके हुए बोर्ड पर लिखा होता "केले-आम के छिलके, बिस्कुट खाकर उसके प्लास्टिक और चाय पीकर प्याली अपने साथ ले जाएँ। आपकी इस सहयोग के लिए धन्यवाद।"
        मुगलसराय, यानि मुगलो का सराय। मतलब यहाँ पान वगैरह भी मुग़ल शासन के लोग ही खा सकते थे। इसलिए यदि आपमें स्टेशन परिसर को साफ व स्वच्छ रखने की भावना है और पान-तम्बाकू खाने की आदत से मजबूर हैं तो उसकी पिक अपनी जेब में उगिलते जाइये। धन्यवाद। 

-धीरज चौहान