Tuesday 17 December 2013

खुशिओं ने दिए ज़ख्म (Sad Love Story)

खुशिओं ने दिए ज़ख्म 

         हर लड़की का सपना होता है कि जो उसे प्यार करे वो स्मार्ट दिखे।  वो जब सामने आये तो दिल करे उसे देखते रहें।  पर मैं ऐसा नही चाहती थी।  और शायद इसीलिए कभी कभी नाराज़ हो जाते थे तुम मुझसे।
         "तुम क्यों मुझे ढीले कपड़े पहनने को कहती हो? ये चप्पू की तरह बाल तुम्हें अच्छा लगता है ? यार तुम शहरी लड़की होकर भी देहाती होना पसंद करती हो। " कभी-कभी झल्लाकर अपने दिल की भड़ास निकल लिया करते थे तुम।
         "ताकि तुम्हे किसी कि नज़र न लगे। " और ये कहते हुए मैं हंसने लगती।  तब तुम्हे लगता कि बात कुछ और है जो मैं बताना नहीं चाहती।  फिर तुम जानने के लिए जिद्द भी नहीं करते। बहुत नार्मल थे तुम।  हर कड़वे बात को एक सुखद अहशास में पिरो देते थे। पर सच्च यही था।
           13 साल की थी जब मां - पापा की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।  मामा ने मुझे सम्भाला, उनके कोई बच्चे नहीं थे और मामी भी उन्हें छोड़कर जा चुकी थी।  इसलिए मामा का सारा प्यार मुझे ही मिला।  पर ये थोड़ी खुशियाँ भी आयी थी अपनी पंख लेकर जो उड़ी सो उड़ती चली गयी।  मामा को हृदय रोग था और वो भी ज्यादा दिन साथ नहीं रहे।  उनके गुजरने के कुछ दिन पहले एक कॉल सेंटर में जॉब करने लगी थी।  तब मेरे माथे को नौकरी से कहीं ज्यादा जरुरी थी किसी अपनों का हाथ।  और फिर तुम मिले।  अब मैं इस ख़ुशी को खोना नहीं चाहती थी।  नहीं चाहती थी कि तुम्हें कोई और लड़की पसंद कर ले, और फिर तुम्हें मुझसे छीन ले।  अब तुम इसे जो समझो।
         अब तुम हमेसा ही आने लगे वही ढीला - ढाला सर्ट और चप्पू की तरह बाल बना कर।  मैं जानती थी कि तुम्हे अच्छा नहीं लगता होगा। पर मेरी ख़ुशी की त थी तो तुम कैसे नहीं करते।
         मुझे याद है जब पहली बार तुम्हे देखी थी। घुंघराये हुए थोड़े लम्बे बाल और आँखों पर पतली फ्रेम वाली चस्मे में एक कवी की तरह लग रहे थे तुम।  पर काले जींस और ब्लू शर्ट में एक सुपरस्टार से कम भी नही दिख रहे थे।
         मुझसे ही आकर पूछे थे तुम....  "एलियन बिल्डिंग किस तरफ है ?"
         तब मैं मजाकिये मूड में ज़वाब दी थी… "आप उसी के निचे खड़े हैं."
         बिल्कुल ही सरमा गए थे तुम।  तुमने ये जानबूझकर पूछा था या सच्च में तुम जानते नहीं थे, ये तो मैं नहीं जानती पर तुम्हारा शरमाने का अंदाज़ तुम्हारे अच्छे इंसान होने का संकेत दे रहे थे।
         उसी कॉल सेंटर में तुम इंटरव्यू देने आये थे जहाँ मैं काम करती थी। देखने से ही लग रहा था कि तुम इंटरव्यू देने आये हो।  फिर न जाने क्यों तुम्हारी सफलता के लिए खुदा की इबादत में मेरे हाथ उठ गए थे।
         अच्छा लगा था जब दो दिन बाद वही चेहरा सामने वाली टेबल पर दिखा और फिर हर दिन दिखने लगा।  तुम्हारी सिलेक्शन हो चुकी थी।
         मेष वाले हर स्टाफ के लिए लंच एक बजते - बजते पहुँचा जाते थे। डेढ़ बजे टिफिन होती थी। सारे स्टाफ एक साथ बैठकर लंच करते। शिवाये मेरे। धीरे -धीरे उन लोगों में तुम भी शामिल हो गए।
         "अगर आप हम लोगों के साथ लंच करेंगी तो हम आपका खाना छीन नहीं लेंगे।" अचानक ही एक दिन ये कहते हुए मेरी टिफिन बॉक्स लेकर उस तरफ चले गए थे तुम।
         मुझे अस्चर्य लगा था। अभी महीनें दिन भी नहीं हुए थे तुम्हारे आये और इतना कैसे सबों में घुल-मिल गए थे ? अजीब भी लगा था तुम्हारे उस ब्यवहार से। पर कुछ बोल भी नहीं पायी थी मैं। क्योंकि पहली बार यहाँ किसी ने अपनापन दिखाया था। आज वर्षों बाद किसी के कारण थोड़ी मुस्कुराहट छलकी थी मेरे चेहरे पर।
         तुम्हारा मानना था… "जिंदगी जब भी मुस्कुराने का मौका दे, दिल से मुस्कुरावो, क्या पता ख़ामोशी कब लबों पे दस्तक दे दे।"
        कोई बताया होगा तुम्हें, शायद इसलिए ही तुम्हे मेरे तन्हाईओं से प्यार हो गया था। जब देखो मुझे हँसाने की कोशिश करते रहते थे तुम। और शायद मुझे भी तुम्हारे उस हमदर्दी से, तुम्हारे अपनेपन से प्यार हो गया था।  मैं जानती थी तुम्हारे अल्हड़पन को, तुम कभी किसी एक डाल पर टिके नहीं रह सकते थे। तितली की तरह था तुम्हारा मन जो हर जगह उड़ते रहने वाला था। तुम ऐसे थे कि हर किसी के चहेते बन गए थे। रही प्यार करने की तो, वो बुद्धू ही होगी जो तुमसे प्यार करना नहीं चाहेगी।
         तब न जाने कैसे खुदा को मुझपे तरस आया था। जो शायद मेरे खामोश दिल को सुनने के लिए तुम्हें भेज दिया था। तुम सिर्फ मेरे थे, और सिर्फ मेरे। मेरी ही खुशियों के खातिर जीने लगे थे।
         तुम अपने घर गए हुए थे। माता - पिता को राजी करने हमारी शादी के लिए। फ़ोन पर बता रहे थे… "राधिका, सब राजी हैं और तुमसे सब मिलना चाहते हैं। उन्हें बहुत दुःख हुआ ये जान कर कि तुम्हारे माँ-पापा नहीं हैं। मैं कल आ रहा हूँ तुम्हें लेने। सबों से मिल लेना। अब आकर बात करता हूँ।"
         मैं बहुत खुश थी। अब मेरे माँ-पापा के न होने का ज्यादा दुःख न था, क्योंकि उन दुखों को बाँटने के लिए तुम जो आ गए थे मेरी जिंदगी में। बहुत प्यार हो गया था मुझे मेरी जिंदगी से। इतना प्यार कि मैं अपनी जिंदगी की तक़दीर लिखने बैठ गयी, क्योकि तुमने इस जिंदगी को अनमोल जो बना दिया था। तुम हमेशा कहते थे कि जिंदगी जब भी मुस्कुराने का मौका दे जरुर मुस्कुराओ, पर अब मैं ही जिंदगी को मजबूर कर दूंगी मुस्कुराता हुआ पल देने के लिए।
         देर रात तक तुमसे बाते हुई। तुम्हे भूख लगी थी और जिस ट्रेन से तुम आ रहे थे वो अभी आधे घंटे लेट थी। वहीँ किसी होटल में खाना खाने लगे थे तुम। कहने लगे मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज है, शायद ज्यादा बात नहीं हो पायेगी। फिर तुम्हारा फ़ोन बंद हुआ जो रात तक नहीं आया।
        शुबह-शुबह मेरा फ़ोन बजने लगा तुम्हारे ही सेट किये हुए गाने के साथ .... "मैं शेहरा बांध के आउंगा मेरा वादा  है।"
        तुम्हारी बहन शिखा का फ़ोन था, शायद तुमने ही मेरा नंबर दिए होगे उसे। पूछ रही थी… "शेखर भैया पहुँच गए?"
        "नहीं, अभी तक तो नहीं, पर जैसे ही आयेंगे मैं फ़ोन कर दूंगी।" ये कहते हुए मैंने टीवी स्टार्ट की और रिमोट लेकर सोफे पर बैठ गयी। काफी शोर के साथ टीवी का स्क्रीन साफ हुआ। कोई न्यूज़ चैनल था जो किसी ट्रेन एक्सीडेंट की खबर दे रहा था। मैं चैनल बदलने ही वाली थी कि एक्सीडेंट हुई ट्रेन का नाम सुनकर सन्न रह गई। ये तो वही ट्रेन थी जिससे तुम आ रहे थे, फ़ोन पर ही तुमने बताया था ट्रेन का नाम, जो आधे घंटे लेट थी।
         खुशियों ने आज फिर एक जख्म दिए थे मुझे। जिंदगी, जिसकी तक़दीर मैं लिखने चली थी, आज खुद एक कोरा कागज़ बन गयी थी।
         जिंदगी मुझे माफ करना, मैं तुमसे ज्यादा अपने शेखर से प्यार करती हूँ।  मैं जा रही हूँ अपने शेखर के पास।
         खाना खाने के चक्कर में मेरी ट्रेन छूट गयी थी। रास्ते में पता चला था उस ट्रेन हादसे कि खबर, सुन कर बहुत डर लगा था। मैं राधिका नहीं शेखर हूँ। ट्रेन हादसे के चलते उस तरफ कि सभी लाइने ब्यस्त थी। एक दिन बाद अपने क्वॉटर पहुँच पाया मैं। जल्दी-जल्दी फ्रेश होकर राधिका के पास आया। उसके घर के बाहर बहुत भीड़ थी। उसके कमरे में गया तो देखा टीवी जाली हुयी थी। उसके फुटे स्क्रीन में राधिका के हाथ घुसे हुए थे। वहीँ सोफे पर एक डायरी पड़ी मिली। राधिका के ही लिखावट थी।
         वो तो नहीं रही पर उसकी डायरी में लिखे उसके दास्तान की ये पंक्तियां इस बात की सुबूत थी कि खुशियों ने कितने जख्म दिए थे उसे।

                                                                                                                        --धीरज चौहान 

Saturday 31 August 2013

शबब 'Poem'

…. …. …. शबब …. …. …. 
हर शुबह
हर शाम
होता है एक नाम
मेरी हथेलियों पर
कुछ उल्टा
कुछ सीधा
कि कोई
पढ़ न ले
पर पता है मुझे
वो तुम्हारे ही तो हैं !
क्यों कि मैं जनता हूँ
और बस मैं जनता हूँ
क्यों कि मेरे ही तो
लिखे होते हैं वो
यूहीं बेमन्न से
उलझकर तेरी यादों से
जब कभी फीके पड़ जाये
लिखा तेरा नाम
मेरे हथेलियों पे
बस उठाता हूँ कलम
और दुहरा देता हूँ उसे
एक बार फिर
देर तक दिखने के लिए
जिसे बस मैं जनता हूँ,
शबब तो हैं कई इसके
पर हर शय याद
तेरी आये
'शबब'
यही एक खाश है
                           ----चौहान

Thursday 7 March 2013

Poem


बेताब आँखों को सनम का दीदार हो जाये 
बेचैन सासों में थोड़ा करार हो जाये 

छुपा है जो दर्द आंसुओ के बूंदों में 
बनकर शब्द होठों से इज़हार हो जाये 

है बेपनाह मुहब्बत हमें जिस चाँद से 
खुदा करे उन्हें भी हमसे प्यार हो जाये 

एक यकीन है जो जाता नहीं दिल से 
काश उन्हें भी इस सच पे ऐतबार हो जाये 

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

ज़ुबां   पे   कल   की  बात  तो   आने   दीजिये 
इन  हाथों  में  अपना  हाँथ  तो  आने   दीजिये 

निगाहें  तो  कबके  ढूंढ़  चुकी  है मंजिल अपनी 
हमसफ़र के लिए अपना  साथ तो आने  दीजिये 

बातों ही बातों में निकल आयेंगें किस्से  इश्क के 
इन खामोश होठों पे कोई राज तो आने  दीजिये 

कैसे   लड़खड़ाने  लगे  आप  जब  साथ  हम  हैं 
पहले ही थाम लेंगे गिरने के हालात तो आने दीजिये 

आप  डरते  ही  हैं   फिजूल   इन   अंधेरों   से 
सितारे रह दिखायेंगे पहले रात तो आने दीजिये 

कर लेंगे ''चौहान'' पर यकीं जब दिल की बात होगी 
बस कहने का कोई हुन्नर  याद तो  आने  दीजिये 

Wednesday 6 March 2013

जागने दो मुझे (Poem)

जागने दो मुझे ......

इससे पहले की
मैं मर न जाऊं
जीने दो मुझे ..

इससे पहले की
मैं सो न जाऊं
जागने दो मुझे ..
एक अंधेर होगी
जीने के बाद
जिसे हम मौत कहेंगे,
एक अंधेर होगी
जागने के बाद
जिसे हम रात कहेंगे,
जिस तरह
ये भी एक जिन्दगी है
वो भी एक जिन्दगी होगी,
जिस तरह
इसमें एक तन मिला
उसमें भी मिल जायेगा,
परन्तु
उसकी शुरुआत होगी
एक बिज़ से
और इसमें आ चुके हैं
कई मंज़र ...

कल भी उड़ेंगे
बादल के सैकड़ों टुकड़े
इन खुले आसमान में
कल भी सुनूंगा
उनका गरजना,
और देखूंगा
बरसने के लिए
एक छत ढुंढना

पर कल,
इन सबके लिए
एक इंतज़ार होगी
आज वो
मेरे छत बरस रहें हैं ...

इससे पहले की

मैं सो न जाऊं
जागने दो मुझे ..


Wednesday 27 February 2013

पलकों से दुआ 'A Love Story'

''पलकों से दुआ''

       पहले तो रविश मुझपर हंसा था जो मैंने उससे कहा कि रिया मुझे अच्छी लगती है। कहने लगा, उसके आये अभी दो दिन ही हुए हैं और तुम्हें अच्छी लगने लगी। अरे जा कोई और मच्छली पकड़ ये तो अभी नादान है। वैसे  भी इसे यहाँ ज्यादा दिन ठहरना नहीं है। और दूसरी बात वह उम्र में तुमसे बहुत छोटी लगती है।
       पर उसे क्या पता इस दिल के नादानी का जो कब, कहाँ और किस पर आ जाये। क्या ये जरुरी है की जिसे हम चाहें वह हमउम्र हो। वह हर दिन पास हो और हम एक दुसरे को बार बार आई लव यू बोलें। मैं नहीं मानता। नहीं मानता की प्यार को मुकाम शादी के रूप में दें। मेरे ख्याल से प्यार जिन्दगी का एक अलग रिश्ता ही है। जो की गम भी देता है और ख़ुशी भी। जिसमें न कोई बड़ा होता है और न कोई छोटा। प्यार के लिए सब एक समान है और प्यार सबके लिए। 
      पता ही न चला दो हफ्ते कैसे बित गए। इन दो हफ़्तों में मैं उसके बहुत करीब आ चूका था। उसका भी मेरे रूम में आना जाना शुरू हो गया था। वैसे जुबान से कई तरह की बातें होती रही। पर दिल की बातें हम दोनों की आँखे ही बतिया सके। हममे से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई एक दुसरे से इज़हार करने की।
      एक दिन जब वह मेरे पल्कें से गिरे बाल लेकर मेरे हथेलियों के ऊपर रखा और आँखें बंद कर मुझे कुछ मांगने को कहा। मुझे इन सब बातों पर विस्वास न था। टूटते हुए तारों से मांगना। झरते हुए बाल से मांगना। अरे, जिसका खुद का ठिकाना छुट रहा हो वह किसी और को क्या दे सकता है। फिर भी उसका दिल रखने के लिए मैंने आँखें बंद कर ली। उसके कांपते हथेली मेरे आँखों पर जमे थे। जैसे कह रहे हों 'मुझे ही मांग लो न… ' मेरी आँखे खुली तो उसकी निगाह अपने होठो पर पाया। लग रहा था वह पढ़ रही है मेरे होठों को कि मैं क्या मांग रहा हूँ, और इस अदा में वह काफी अच्छी लग रही थी। 
       उसके हर अदा की तारीफ मैं एक शायराने अंदाज़ में करता था। बंगाली होने के कारण न वह हिंदी पढ़ सकती थी और न मैं बंगला जानता था। इसलिए लिख कर भी देना मुमकिन न था।
       उसके कई बातों को मैं आने मोबाइल में रिकार्ड करता रहा और इस आश में मिटाता रहा की कोई दिल की बात सेव करूँगा।
       और इस तरह न जाने कब एक महीने बीत गए। दो दिन पहले ही उसकी स्कूल खुल चुकी थी और आज उसे वापस जाना था, और वह भी कोई रात की ट्रेन से। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। अभी तक अपने प्यार का इज़हार भी नहीं कर सका था मैं। इस उम्मीद में, कि वह खुद दिल की बात कहेगी मुझसे। मैं सारा दिन अपने पलकों से बाल झरने का इन्तजार करता रहा। और जो मिलता उसे अपने हथेलियों पे रख सिर्फ यही मांगता की 'वह मुझसे अपने दिल की बात कहे'. पर जल्दी ही दिन भी ढल गया। उसके परिवार वालों के साथ मुझे भी उसे स्टेसन छोड़ने जाना था। मेरे हर बढ़ते कदम मुझे वापस खिच रहे थे। किसी तरह एक नामुमकिन उम्मीद के साथ स्टेशन पहुंचा। कमबख्त ट्रेन को भी जल्दी ही आना था इसलिए हम लोगों को ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा। वह अपनी बुआ के साथ ट्रेन में बैठ चुकी थी।  मैं उसे अन्दर जगह दिखाकर बाहर खिड़की के पास आ खड़ा हुआ। दिल से तो कई बातें निकल रही थी पर ज़ुबान पे जैसे ताले लग गए हों। बस इतना ही कह सका... 
         'हर कोई तुम्हें कुछ न कुछ दिया शिवाय मेरे, सो आई एम सॉरी.... आई विल मिस यू ....' इतना कह मैं वहां से जाने लगा तभी उसका हाथ मेरे हाथों पे आ गए।
ज़ुबां से न सही इशारों में कहा था..  
समझ न सके तुम तो मेरा कुशूर क्या था...
      कहते हुए हंसने लगी। 'तो क्या हुआ आपके साथ रहते-रहते मैं सायरी करना तो जान गई।'
      मैं उसके हाथों में अपनी डायरी और उसके जुबां से अपना सेर सुन अवाक् रह गया। सायद मेरी पलकें मेरी दुआ सुन चुके थे।

धीरज चौहान 

Thursday 14 February 2013

ठहराव "The Pain of Love"

''ठहराव''

       बड़ा अच्छा लगता है जब कोई अजनबी वर्षों पहचान वाली नज़रों से देखता है। ऐसा लगता है उसे उम्र भर के लिए अपना बना लें। और अगर इस उम्मीद को प्यार कहते हैं तो यह सोच कर भी डर लगता है। ऐसा इसलिए नहीं कि प्यार में बहुत सितम सहने पड़ते हैं, बल्कि इसलिए कि बहुत सितम सह कर भी कुछ हासिल नहीं होता।
      किसी ने सच्च ही कहा है.....अगर मोहब्बत की राह पर चल पड़े हो तो मंजिल की उम्मीद न रखो। क्योंकि जो कभी प्यार किये थे, अब वो भी प्यार के नाम से डरने से लगें हैं। शायद इसलिए कि आज सच्चे प्यार करने वाले मिल नहीं पाते। और यही ख्याल कभी कभी सच्चे प्यार करने वाले को पहचानने नहीं देता।
       हाँ, सच्चा प्यार करता था वह मुझसे। उसके दिल में झांक कर देखना तो मुझे नशीब हुआ नहीं पर पन्ने पर उसके रोते-बिलखते अश्क मुझे सब कुछ कह गए थे। यह तो मैं नहीं जानती कि खुदा ने उसे अपनी किस पनाह में जगह दी है पर जब तक उसके सच्चे प्यार की कसक मेरे दिल में होती रहेगी मैं उसके लिए जन्नत की दुआ करुँगी।
       आज उस लम्हे को गुज़रे लगभग दस साल होने को है पर अब भी ऐसा लगता है कि दस मिनट पहले ही वह मुझसे दूर हुआ है। भले ही वह एक बुरा लम्हा था सब के लिए, पर मेरे लिए वह मेरी जिन्दगी का एक ठहराव था जो मेरे न चाहते हुए भी अपनी मोड़ पर आज भी मुझे बुला लेता है। और मैं एकांत पाकर उन ख्यालों में पहुँच जाती हूँ। 
        आखिर क्या देखा था वह मुझमे की इस कदर मुझपे मरने लगा था। कुछ देर तक तो मैं उससे नज़रें चुराती रही, पर खुद को कहाँ तक छुपा पाती उससे! उसके देखने वाले उस प्यारे अंदाज़ से! किसी तरह वो सगाई के दिन तो बीत गए पर हमारे दिल में हमेसा सगाई होती रही। तब एक दिन अचानक ही हमारे पड़ोस की एक लड़की ने खुद को जला डाली थी। बाद में पता चला कि उसके चाहने वाले लड़के की शादी हो गई थी और वह इस सदमें को बर्दास्त नहीं कर पाई। सुन कर मैं भीतर से सिहर गयी। 'प्यार-व्यार के चक्कर में पड़ने वालों का यही हाल होता है।' यह सोच तो मेरी ममा की थी पर दिल मेरा कांपे जा रहा था।
        उसके कई ख़त आये पर अब किसी भी ख़त का जवाब देना मेरे बस की बात नहीं  थी।  मैं जब भी उसके बारे में सोचती तो उस लड़की के जगह मेरा बदन जलता सा महसूस होता। मैं फैसला कर चुकी थी, इस नाजुक डगमगाते राह पर मुझसे नहीं चला जायेगा। और यही सोच कर मैं फिर से अपने अतीत में वापस जा चुकी थी। ख़त आते रहे पर हर ख़त को एक रात का सपना समझ कर भूल जाती। अब उसे भूल कर उसके बदले हुए नाम को ही अपने दिल से लगा ली थी जो लिफाफे के कोने पर लिख कर भेजता था वह..... सपना। ताकि मेरे ममा पापा को सक न हो।
        एक दिन अचानक मेरे घर फोन आया। मैंने फोन रिसीव की, सुनकर रिसीवर भी थामने की ताकत नहीं रह गए थे मुझमें। मेरे आँख भर आये थे। मैं उसे छुपाने के लिए अपने कमरे में आ गई थी। मेरे दीदी के देवर का फोन था, उसका दोस्त जिसे मैं एक सपना समझ कर भूल चुकी थी, आखरी सांसे ले रहा था और मुझे आखिरी बार देखना चाहता था। उस वक़्त मेरे ही फैसले  मुझसे नहीं लिए जा रहे थे। आखिर किस लिए अब जाऊं उसके पास। क्या कारण बता पाऊँगी उसे, यही कि मुझे उसपर भरोसा नहीं था। या फिर औरों को देख कर डर गयी थी। नहीं, यह नहीं होगा मुझसे। मैं उससे नज़रे नहीं लड़ा पाऊँगी।
        मेरे पापा का हाथ मेरे कंधे पर आया तो मैं अंजान बनने की नाकाम कोशिश करने लगी।
''अपना सामान बांध लो, कल रोहन छोड़ आएगा तुम्हें अनु के पास। वो बुलाई है न तुम्हें?''
      पापा के इन बातों का क्या जवाब देती मैं? कैसे कह पाती कि कल तक बहुत देर हो जाएगी पापा? आज ही जाने दीजिये मुझे।
मैं अगले सुबह अनु दीदी के पास थी। एक ख़त छोड़ गया था वह, मेरे लिए। और मुझमे हिम्मत नहीं थी कि मैं उसे खोलूं। इस ख्याल से कि न जाने उसके कितने 'क्यों' का जवाब देना पड़ेगा मुझे। सारा दिन खुद को हर किसी से छुपाती रही कि कहीं कोई पढ़ न ले मेरे चेहरे की ख़ामोशी को। रात की धीमी रौशनी में खोल पाई थी उसके ख़त को, लिखा था......
डिअर, 
          'मनु'
          हमेसा खुश रहो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बल्कि ख़ुशी है कि तुमने मेरा हाथ न थामी। वरना आज सबसे ज्यादा दुःख तुम्हें होती। मुझे एड्स हुआ था। पर कैसे, मुझे नहीं पता। लेकिन मुझे गलत न समझना। ये जरुरी नहीं है कि, एड्स किसी के सम्पर्क से ही होता है। आगे तुम्हारी मर्जी।
सपना.
         आज उस ठहराव पर रूककर मैं सही करती हूँ या गलत, ये तो मैं नहीं जानती। पर किसी की यादों को समेट कर दिल में रखना गलत नहीं है।

Monday 21 January 2013

You Are in Love (Peom)


आतंक (Poem)

आतंक 

कुछ तो है
जिसे पाने की
एक होड़ है,

कुछ तो है
जिसे हासिल करने की 
प्रयास है निरंतर ,
नहीं देखा है कोई 
की वो कैसा है?
और है क्या वो,
सायद ये भी नहीं 
जनता कोई,
फिर भी एक चाह है 
एक तमन्ना है 
उसे पा लेने की,
कुछ तो है 
एक दिवार के 
उस पार 
जिस तरफ से एक मौन हुई 
सद्दा पुकार रही है 
हर किसी को हर शय,
है कितना सही 
ये किसी को पता नहीं , 
है कितना गलत 
ये  सब जानते हैं,
क्यों की ये आतंक है 
इसमें सब पिलते हैं।।



-- धीरज चौहान ''धैर्य'"

....तो तुम मिले (Poem)



....तो तुम मिले।


राह-ए-जिन्दगी में
यूँ अकेले ही चले थे,
तब तलाश थी
एक हमसफ़र की
                                  ....तो तुम मिले।

डूबता ही जा रहा था
ये दिल
अपनों की चाहत में ,
जब धडकनों ने किया याद
एक अजनबी को

                                  ....तो तुम मिले।

न ख़त्म हो 
सिलसिला खाबों का ,
जो इस उम्मीद के साथ 
सपनों ने 
एक करवट ली 
                                  ....तो तुम मिले।


Saturday 19 January 2013

क्या हुआ (Poem)



क्या हुआ 

क्या हुआ
तुम मिलो न मिलो
उम्र भर के लिए,
दिल तो खाली रहेगा
हमेसा,
तुम्हारी यादों को
छुपाने के लिए

क्या हुआ
जो न होगी कभी स्पर्स
तुम्हारी हाथों का
मेरे हाथों पर,
एक इंतजार तो रहेगी
मेरी बाहों का
सदा के लिए

क्या हुआ
न आओगी कभी तुम
मेरी सोते ख्वाब को जगाने,
हर ख्वाबों में ही सही
होगा तुम्हारा साथ
तन्हा रातों के लिए

क्या हुआ
न सुनूंगा कभी
तेरी हंसी मिली बातों को,
इन हवाओं की
सरसराहट ही काफी होगी
तड़पते दिल को
बहलाने के लिए

क्या हुआ
जिन्दगी की इस सफ़र में
मेरी हमसफ़र
न बन पाओगी तुम,
एक उम्मीद तो है
और इंतज़ार
अगले जिन्दगी के लिए ।       _चौहान

Wednesday 16 January 2013

ग़ज़ल



ग़ज़ल 

आपकी आँखों के अश्क ये कहते हैं 
आप मेरे दिल में हम आपके दिल में रहते हैं 

जुल्फों की सरकन बताते हैं मुझको 
की मुझे खुद में समेटने को संवारते हैं 

कब तक छुपायेंगे दिल की बातें दिल में 
कब आएगा ओ वक़्त सपर के हम भी देखते हैं 

दिन ढल जाता है सारा बैठे उनको किनारों पर 
न तूफां ही बहलाता है न लहर ही उन्हें भाते हैं 

लगता है मैं परछाई में भी उन्हें दीखता हूँ 
जब वो हंसकर आईने से बातें करते हैं 

'चौहान'  तेरे आने की कैसे खबर होती है उनको 
की राहों  पर नज़र और होठों पे दुआ रखते हैं।।

बहुत दूर (Poem)

बहुत दूर 

ये सोच कर
उठा था तेरे दर से
की थाम लोगी हाथ
फिर रोक लोगी मुझे
एक आवाज़ देकर
मैं बढ़ता गया युहीं
आहिस्ता-आहिस्ता लगातार
पर न उठे तेरे हाथ
थामने के लिए
मेरे हाथों को
और न ही तेरे लब
मैं बस बढ़ता ही गया
इक इंतज़ार लेकर
तेरे उठते हाथ का
तेरे आवाज़ का
और अंततः
न हुई कोई आहट
पीछे आते किसी क़दमों के
और न आई कोई आवाज़
और इस तरह
मैं दूर हो चूका था
बहुत दूर
तुमसे और
तेरी आवाज़ से !!!     --चौहान (19-01-2006)

मैं लिखूंगा (Poem)


मैं लिखूंगा 

तेरे साथ बीते
हर पल को
हर लम्हों को
जिसमें तुम्हारी मौजूदगी थी
मैं लिखूंगा
भले ही मेरा नाम बदलकर
रख दे दुनियां
पागल मुझे
फिर भी
मैं लिखूंगा
हर अहसास को
हर अनुभव को
जिसमे बस तुम्हें
और सिर्फ तुम्हें ही
मैंने महसूस किया
मैं लिखूंगा
तेरे सब्दों को
अपने कलामों में
अपने कहानियों में
अपने ग़ज़ल के
हर पंक्तियों में
मैं लिखूंगा
तेरी तारीफों को
तेरी मसुमिअत को
मैं लिखूंगा             ----चौहान '10-03-2006