Friday 24 April 2015

मुक्ति

मुक्ति 

        कुएँ के क्यरीनुमा जगह से हमेशा मीठे पानी की धारा बहती रहती है। जिसमे छोटी छोटी मछलियाँ अंदर-बाहर करती रहती है। उन्हीं मछलियों को देख रहा था। फिर एक ध्वनि सुनाई दी। खड़ा होकर देखा तो गाँव से निकल कर सफ़ेद सड़को के धुल उड़ाते तीस-चालीस ब्यक्तियों का एक झुण्ड आ रहा था। जब वे क़रीब आये तो देखा मेरे पड़ोस की एक औरत मर गई थी जिसे लोग जलाने के लिए ला रहें हैं। उस झुण्ड में मैं भी शामिल हो लिया और उनके साथ दुहराने लगा ''राम नाम सत्य है।''
        उस मृत औरत का बेटा जो मुझसे थोड़ा छोटा था जानवरों के गोबर  का बनाया हुआ कुछ सूखे जलावन लिए हुए बढ़ रहा था। लोग उस जलावन को जगह-जगह पर कई नाम से जानते हैं। हमारे यहाँ गोइठा कहा जाता है। कहीं गंडा तो कहीं उपला भी कहते हैं। संभवतः वे जलावन उसी औरत ने बनाये होंगे। मैं अक्सर उसे खलिहानों में तो कभी दीवारों पर गोबर को गोल-गोल आकार में बनाकर थोपते हुए देखता था।
        दो गोइठे मैंने भी मांग लिए उससे। उस औरत के परिवार के लोग उसकी चिता की परिक्रमा कर लकड़ियाँ उसके ऊपर रखते जाते थे। उसके बेटे से कुछ गोइठे लेकर मैं उसके साथ था इसलिए मैंने भी परिक्रमा कर उस औरत के चिता पर वह जलावन डालना अपना अधिकार समझ रहा था।
        बाकी लोग चिता बनाकर वहीँ नीम के पेड़ के निचे दुभ के घांस पर बैठे थे। सभी के चेहरे के भाव शुन्य थे। उसका बेटा भी मुखाग्नि देकर उन लोगों के साथ बैठ गया। वो भी कुछ नहीं सोच रहा था। वैसे भी गाँव में रहने वालों को कुछ नहीं सोचने की नियति बन जाती है। वे वर्तमान में जीना अधिक पसंद करते हैं। उस औरत का पति जो एक हरे बांस का बल्ला जिसपर अपनी पत्नी को बांध कर लाया था, उसे लेकर चिता के लकड़ियों को झकझोर रहा था। ताकि आग खूब तेजी से जले और उसकी पत्नी पूरी तरह जलकर राख हो जाए।
        दो दिन पहले ठीक इसी तरह अपनी पत्नी का हाथ पकड़े झकझोरते हुए देखा था उसको। वहीँ धुप-हमन कर रहे ओझा और तांत्रिक एक मोटे लोहे के कोड़े से उस औरत की पिटाई कर रहे थे। यह तमाशा उस घर में पिछले एक हफ्ते से हो रहा था। लोग कहते थे 'उसके ऊपर भूत आता है और वह बाबा उसी भूत को भगाने के लिए उस पर कोड़े बरसाते हैं। घर पास में होने की वजह और भूत देखने की ईच्छा से मैं भी दिन में दो-एक बार हो आता। पर उस औरत के भीतर समाया भूत उस कोड़े की आवाज़ और दर्द में बिलबिलाती उसकी चीख से भयानक नहीं हो सकता। ये देख मैं वहां से भाग जाता।
        आज उसका पति अपनी पत्नी को भूत से मुक्त तो न करा सका पर उसकी बीमारी में लगने वाले खर्च के भार से अवश्य मुक्त हो रहा था।

--धीरज चौहान 

Saturday 4 April 2015

मुजरिम

      हर दिन सुबह-सुबह उन्हें अपनी बेटी को साथ लेकर घूमते देखता था। कभी बातें नहीं हुई थी उनसे मेरी। उस दस-पंद्रह घर वाले मोहल्ले का आखिरी घर उनका था। कुछ दिनों पहले ही इस मोहल्ले में एक किराये के घर में सिफ्ट हुआ था मैं। बस इसलिए कि हम उनके पड़ोसी हुए और वो मेरे, सुबह टहलने के दौरान नमस्ते-सलाम में हम दोनों के हाथ उठ जाया करते। 
      अच्छे इंसान थे शर्मा जी। उनकी एक ही बेटी थी जिसे वो अपने साथ ही लेकर चलते। चाहे उसे कहीं भी जाना हो। खूबसूरत गोरी लड़की थी। रेशमी बालों के निचे दमकते चेहरे पर बड़ी-बड़ी पलकों के बीच नीली-भूरी आँखें उसे और भी खूबसूरत बनाये हुए थे। 
      पर, काश कि उसमे ईश्वर के दिए इन उपहारों को कद्र करने की और संवार पाने की समझ होती। विछिप्त सी अपने पिता के बाँहों को खूब जोर से पकडे इधर-उधर देखते चलते रहती। उम्र के चक्र ने उसके शरीर में कई बदलाव कर दिए थे। सुना था शर्मा जी ही नहलाते-धोते थे उसे। खाने-पीने की भी सुध न रहती थी। 
      चार दिनों की छुट्टी थी इसलिए गाँव चला गया था। एक तो बस का सफर दूसरे आधी रात तक जागना। वापस आकर सोया तो सुबह देर हो गयी थी उठने में। जल्दी-जल्दी फ्रेश होकर टहलने जाने के लिए बाहर निकला। 
      ''आज तो शर्मा जी टहल कर आ भी रहे होंगे। शायद आज रास्ते में उनसे मुलाकात न हो। '' ये सोचते-सोचते दरवाजे पर आया ही था। पर ये क्या शर्मा जी तो बाहर ही मिल गए। पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी उन्हें। मैं अवाक् सा खड़ा सब कुछ देखता रह गया। 
      उनकी बेटी जिसे देख कर लगता नहीं था की वो पागल है। उसके रहन-सहन, पहनावे-ओढावे से साफ दीखता था कि कितने प्यार से परवरिश करते थे शर्मा जी उसकी। उस पागल की खूबसूरती में खुदा की मेहनत नहीं शर्मा जी की कारीगरी का अनुभव होता था।
      उस कारीगर की तराशी की हुई मूर्ति की मृत शरीर उसके बरामदे में पड़ी थी। एक महिला जो शर्मा जी की पत्नी थी, वहीँ जमीन पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन को दाबे जा रही थी। जैसे धरती से दुआ कर रही हो फटने के लिए और उसमे समा जाना चाह रही है। 
      आठ-दस मजबूत हाथों के बीच छटपटा रही थी उनकी बेटी। लगातार चीख रही थी। उसके रोने की हर रुदन में उसका बचपना दीख रहा था। अठारह-उन्नीस वर्ष के शरीर में तीन-चार साल की बच्ची चीत्कार कर रही थी। पर इन सब बातो का कोई अहसास उन दरिंदो को न था। सब बारी-बारी से अपनी हवस की भूख मिटाने में लगे थे। पहली बार इंसानियत को इतना कलंकित, इतनी शर्मसार होते देख रहा था मैं। ये गन्दी भूख कितना नासमझ बना देती है इंसान को? कितना अच्छा होता यदि ईश्वर, इंसान बनाता पर उसके अंदर ऐसी तृष्णा न देता जिसको शांत करने के लिए इंसान इतना गिर जाता है। या फिर उस पागल को बच्ची ही रहने देता। उसके योवन को इस कदर विकसित होने से रोक देता, तो शायद वे दरिंदे उस पागल लड़की से भी उसी तरह घृणा करते जैसे बाकि पागलों से सभी करते हैं। फिर शायद न उसका बलात्कार करते और न उसके विकसित बदन की फिल्म बनाते। 
      फ़ोन को बंद करते हुए उस मोहल्ले के एक युवक ने बताया। 
      ''इसी वीडियो के वजह से शर्मा जी ने उसकी गला घोंट दी। पिछले तीन दिनों से बेचारे की हालत पागलों जैसी हो गयी थी। घर से निकल नहीं रहे थे। गुस्से में या पागलपन में पता नहीं पर, बार-बार दरवाजे और दिवार पर जोर-जोर से हाथ मारते। अपने अहाते के सारे फूल-पौधे को उखाड़ बाहर फेंक दी उन्होंने। चौबीस घंटे के भीतर ही सारे मुजरिमो को पुलिस ने पकड़ ली थी।"
      फिर वह युवक चुप हो गया।
--धीरज चौहान