Monday 12 May 2014

हालात चाहे जैसे भी हों, जींदगी अपनी रास्ता ढूँढ़ लेतीं है।

न जाने कैसा आत्मविस्वास था उसमे। जो भी करता पूरी ईमानदारी और मन से करता। पिताजी उसे एक कील भी गाड़ने को कहते तो पुरे इत्मीनान से सब काम छोड़ कर करता। मानो वह कील नहीं, उसकी भविष्य की कूंजी है और पीताजी के  दिए हुये आदेश उस कूंजी का ताला। कहीं कील न गड़ी तो उसका भविष्य के ताले मे ज़ंग न लग जाये और फिर वो कभी न खुले। काम चाहे घर का हो या खेत-खलिहान का। किसी भी काम के लिए कभी वो न नहीं कहा। किसी काम में यदि वो एक बार लग गया तो उसे ख़तम करके ही कहीं और जाता। पिताजी कई मरतबा उसे कहे भी - 'जुगु तू घर किसलिए जाता है ? यहीँ खा-पीकर सो जाया कर।'
पहले पिताजी को मालूम न था, मैने ही कहा- 'बाबूजी, जुगु यहाँ से जानें के बाद घर पर पढ़ने बैठ जाता है। इस बार उसे सातवीं का इम्तिहान देना है।'
और फिर पिताजी उसे कभी रोकने न लगे। हाँ, उन्होंने इतना जरुर कहा था -'तुझे जब भी वक़्त मिले बड़े के साथ बैठ जाना और कुछ कमे तो कह्ना।
वो हमारे घर का नौकर न था। पर काम में ऐसे लगा रहता जैसे नौकर ही हो। हमने उसे नौकर कभी न समझा। उसके ब्यवहार में ही ऐसा कुछ शामिल न था कि क़ोई भी उसे नौकर समझे। वैसे तो पुरे गावों के लिये बस मजदूर था। परन्तु पक्का स्वाभिमानी था। तीन सेर चावल जो कि एक दिन की मजदूरी थी, इससे अधिक तीन चावल की भी लालच न करता। गरीब का दंस वो बचपन से झेल रहा था। पर गरीब होने का उसे जरा भी अफ़सोस न था।
मुझे याद है जब उसकी मा मरी थीं। मुस्किल से दो-चार महिने बीते होंगे उसे अपनी मा का दुध छोड़े हुए। जीवन मृत्यु का आभास भी न हुआ होगा। और अनाथ पहले हो गया।