Thursday 14 February 2013

ठहराव "The Pain of Love"

''ठहराव''

       बड़ा अच्छा लगता है जब कोई अजनबी वर्षों पहचान वाली नज़रों से देखता है। ऐसा लगता है उसे उम्र भर के लिए अपना बना लें। और अगर इस उम्मीद को प्यार कहते हैं तो यह सोच कर भी डर लगता है। ऐसा इसलिए नहीं कि प्यार में बहुत सितम सहने पड़ते हैं, बल्कि इसलिए कि बहुत सितम सह कर भी कुछ हासिल नहीं होता।
      किसी ने सच्च ही कहा है.....अगर मोहब्बत की राह पर चल पड़े हो तो मंजिल की उम्मीद न रखो। क्योंकि जो कभी प्यार किये थे, अब वो भी प्यार के नाम से डरने से लगें हैं। शायद इसलिए कि आज सच्चे प्यार करने वाले मिल नहीं पाते। और यही ख्याल कभी कभी सच्चे प्यार करने वाले को पहचानने नहीं देता।
       हाँ, सच्चा प्यार करता था वह मुझसे। उसके दिल में झांक कर देखना तो मुझे नशीब हुआ नहीं पर पन्ने पर उसके रोते-बिलखते अश्क मुझे सब कुछ कह गए थे। यह तो मैं नहीं जानती कि खुदा ने उसे अपनी किस पनाह में जगह दी है पर जब तक उसके सच्चे प्यार की कसक मेरे दिल में होती रहेगी मैं उसके लिए जन्नत की दुआ करुँगी।
       आज उस लम्हे को गुज़रे लगभग दस साल होने को है पर अब भी ऐसा लगता है कि दस मिनट पहले ही वह मुझसे दूर हुआ है। भले ही वह एक बुरा लम्हा था सब के लिए, पर मेरे लिए वह मेरी जिन्दगी का एक ठहराव था जो मेरे न चाहते हुए भी अपनी मोड़ पर आज भी मुझे बुला लेता है। और मैं एकांत पाकर उन ख्यालों में पहुँच जाती हूँ। 
        आखिर क्या देखा था वह मुझमे की इस कदर मुझपे मरने लगा था। कुछ देर तक तो मैं उससे नज़रें चुराती रही, पर खुद को कहाँ तक छुपा पाती उससे! उसके देखने वाले उस प्यारे अंदाज़ से! किसी तरह वो सगाई के दिन तो बीत गए पर हमारे दिल में हमेसा सगाई होती रही। तब एक दिन अचानक ही हमारे पड़ोस की एक लड़की ने खुद को जला डाली थी। बाद में पता चला कि उसके चाहने वाले लड़के की शादी हो गई थी और वह इस सदमें को बर्दास्त नहीं कर पाई। सुन कर मैं भीतर से सिहर गयी। 'प्यार-व्यार के चक्कर में पड़ने वालों का यही हाल होता है।' यह सोच तो मेरी ममा की थी पर दिल मेरा कांपे जा रहा था।
        उसके कई ख़त आये पर अब किसी भी ख़त का जवाब देना मेरे बस की बात नहीं  थी।  मैं जब भी उसके बारे में सोचती तो उस लड़की के जगह मेरा बदन जलता सा महसूस होता। मैं फैसला कर चुकी थी, इस नाजुक डगमगाते राह पर मुझसे नहीं चला जायेगा। और यही सोच कर मैं फिर से अपने अतीत में वापस जा चुकी थी। ख़त आते रहे पर हर ख़त को एक रात का सपना समझ कर भूल जाती। अब उसे भूल कर उसके बदले हुए नाम को ही अपने दिल से लगा ली थी जो लिफाफे के कोने पर लिख कर भेजता था वह..... सपना। ताकि मेरे ममा पापा को सक न हो।
        एक दिन अचानक मेरे घर फोन आया। मैंने फोन रिसीव की, सुनकर रिसीवर भी थामने की ताकत नहीं रह गए थे मुझमें। मेरे आँख भर आये थे। मैं उसे छुपाने के लिए अपने कमरे में आ गई थी। मेरे दीदी के देवर का फोन था, उसका दोस्त जिसे मैं एक सपना समझ कर भूल चुकी थी, आखरी सांसे ले रहा था और मुझे आखिरी बार देखना चाहता था। उस वक़्त मेरे ही फैसले  मुझसे नहीं लिए जा रहे थे। आखिर किस लिए अब जाऊं उसके पास। क्या कारण बता पाऊँगी उसे, यही कि मुझे उसपर भरोसा नहीं था। या फिर औरों को देख कर डर गयी थी। नहीं, यह नहीं होगा मुझसे। मैं उससे नज़रे नहीं लड़ा पाऊँगी।
        मेरे पापा का हाथ मेरे कंधे पर आया तो मैं अंजान बनने की नाकाम कोशिश करने लगी।
''अपना सामान बांध लो, कल रोहन छोड़ आएगा तुम्हें अनु के पास। वो बुलाई है न तुम्हें?''
      पापा के इन बातों का क्या जवाब देती मैं? कैसे कह पाती कि कल तक बहुत देर हो जाएगी पापा? आज ही जाने दीजिये मुझे।
मैं अगले सुबह अनु दीदी के पास थी। एक ख़त छोड़ गया था वह, मेरे लिए। और मुझमे हिम्मत नहीं थी कि मैं उसे खोलूं। इस ख्याल से कि न जाने उसके कितने 'क्यों' का जवाब देना पड़ेगा मुझे। सारा दिन खुद को हर किसी से छुपाती रही कि कहीं कोई पढ़ न ले मेरे चेहरे की ख़ामोशी को। रात की धीमी रौशनी में खोल पाई थी उसके ख़त को, लिखा था......
डिअर, 
          'मनु'
          हमेसा खुश रहो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। बल्कि ख़ुशी है कि तुमने मेरा हाथ न थामी। वरना आज सबसे ज्यादा दुःख तुम्हें होती। मुझे एड्स हुआ था। पर कैसे, मुझे नहीं पता। लेकिन मुझे गलत न समझना। ये जरुरी नहीं है कि, एड्स किसी के सम्पर्क से ही होता है। आगे तुम्हारी मर्जी।
सपना.
         आज उस ठहराव पर रूककर मैं सही करती हूँ या गलत, ये तो मैं नहीं जानती। पर किसी की यादों को समेट कर दिल में रखना गलत नहीं है।