Wednesday 27 February 2013

पलकों से दुआ 'A Love Story'

''पलकों से दुआ''

       पहले तो रविश मुझपर हंसा था जो मैंने उससे कहा कि रिया मुझे अच्छी लगती है। कहने लगा, उसके आये अभी दो दिन ही हुए हैं और तुम्हें अच्छी लगने लगी। अरे जा कोई और मच्छली पकड़ ये तो अभी नादान है। वैसे  भी इसे यहाँ ज्यादा दिन ठहरना नहीं है। और दूसरी बात वह उम्र में तुमसे बहुत छोटी लगती है।
       पर उसे क्या पता इस दिल के नादानी का जो कब, कहाँ और किस पर आ जाये। क्या ये जरुरी है की जिसे हम चाहें वह हमउम्र हो। वह हर दिन पास हो और हम एक दुसरे को बार बार आई लव यू बोलें। मैं नहीं मानता। नहीं मानता की प्यार को मुकाम शादी के रूप में दें। मेरे ख्याल से प्यार जिन्दगी का एक अलग रिश्ता ही है। जो की गम भी देता है और ख़ुशी भी। जिसमें न कोई बड़ा होता है और न कोई छोटा। प्यार के लिए सब एक समान है और प्यार सबके लिए। 
      पता ही न चला दो हफ्ते कैसे बित गए। इन दो हफ़्तों में मैं उसके बहुत करीब आ चूका था। उसका भी मेरे रूम में आना जाना शुरू हो गया था। वैसे जुबान से कई तरह की बातें होती रही। पर दिल की बातें हम दोनों की आँखे ही बतिया सके। हममे से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई एक दुसरे से इज़हार करने की।
      एक दिन जब वह मेरे पल्कें से गिरे बाल लेकर मेरे हथेलियों के ऊपर रखा और आँखें बंद कर मुझे कुछ मांगने को कहा। मुझे इन सब बातों पर विस्वास न था। टूटते हुए तारों से मांगना। झरते हुए बाल से मांगना। अरे, जिसका खुद का ठिकाना छुट रहा हो वह किसी और को क्या दे सकता है। फिर भी उसका दिल रखने के लिए मैंने आँखें बंद कर ली। उसके कांपते हथेली मेरे आँखों पर जमे थे। जैसे कह रहे हों 'मुझे ही मांग लो न… ' मेरी आँखे खुली तो उसकी निगाह अपने होठो पर पाया। लग रहा था वह पढ़ रही है मेरे होठों को कि मैं क्या मांग रहा हूँ, और इस अदा में वह काफी अच्छी लग रही थी। 
       उसके हर अदा की तारीफ मैं एक शायराने अंदाज़ में करता था। बंगाली होने के कारण न वह हिंदी पढ़ सकती थी और न मैं बंगला जानता था। इसलिए लिख कर भी देना मुमकिन न था।
       उसके कई बातों को मैं आने मोबाइल में रिकार्ड करता रहा और इस आश में मिटाता रहा की कोई दिल की बात सेव करूँगा।
       और इस तरह न जाने कब एक महीने बीत गए। दो दिन पहले ही उसकी स्कूल खुल चुकी थी और आज उसे वापस जाना था, और वह भी कोई रात की ट्रेन से। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। अभी तक अपने प्यार का इज़हार भी नहीं कर सका था मैं। इस उम्मीद में, कि वह खुद दिल की बात कहेगी मुझसे। मैं सारा दिन अपने पलकों से बाल झरने का इन्तजार करता रहा। और जो मिलता उसे अपने हथेलियों पे रख सिर्फ यही मांगता की 'वह मुझसे अपने दिल की बात कहे'. पर जल्दी ही दिन भी ढल गया। उसके परिवार वालों के साथ मुझे भी उसे स्टेसन छोड़ने जाना था। मेरे हर बढ़ते कदम मुझे वापस खिच रहे थे। किसी तरह एक नामुमकिन उम्मीद के साथ स्टेशन पहुंचा। कमबख्त ट्रेन को भी जल्दी ही आना था इसलिए हम लोगों को ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा। वह अपनी बुआ के साथ ट्रेन में बैठ चुकी थी।  मैं उसे अन्दर जगह दिखाकर बाहर खिड़की के पास आ खड़ा हुआ। दिल से तो कई बातें निकल रही थी पर ज़ुबान पे जैसे ताले लग गए हों। बस इतना ही कह सका... 
         'हर कोई तुम्हें कुछ न कुछ दिया शिवाय मेरे, सो आई एम सॉरी.... आई विल मिस यू ....' इतना कह मैं वहां से जाने लगा तभी उसका हाथ मेरे हाथों पे आ गए।
ज़ुबां से न सही इशारों में कहा था..  
समझ न सके तुम तो मेरा कुशूर क्या था...
      कहते हुए हंसने लगी। 'तो क्या हुआ आपके साथ रहते-रहते मैं सायरी करना तो जान गई।'
      मैं उसके हाथों में अपनी डायरी और उसके जुबां से अपना सेर सुन अवाक् रह गया। सायद मेरी पलकें मेरी दुआ सुन चुके थे।

धीरज चौहान