Friday 4 April 2014

तीर्थयात्रा

तीर्थयात्रा


           जिंदगी अठानवे पायदान पार कर चुकी है। इन अठानवे वर्षों में मैंने कई उतार चढ़ाव देखें, कई खौफ कई ख़ुशी देखे। कई जिंदगियां बनते देखा तो कई ख़त्म होते। पर कभी दूसरों के बारे में सोचने का वक़्त नहीं निकाल पाया। कभी ये नहीं सोचा की मेरे अकेले इतने रख लेने से किसी दूसरे का कम भी हो सकता है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थी था मैं। कभी किसी को देना नहीं सिखा। हाँ, अगर कहीं कुछ मिल रहा हो तो सबसे आगे। 
           बाबू हमेशा कहते "दिनकर, दुसरो के लिए भी सोचा कर। गरीबो के कष्टों को समझा कर, हो सके तो उनकी मदद कर। शौभाग्य प्राप्त होगा। ईश्वर की दया से सब कुछ तो है तेरे पास। भइया की इतनी जायदाद, इतनी धन दौलत, ये सब ले कर जायेगा क्या?"
           मैं तब दस साल का था जब मेरे पिताजी गुजर गए और उनके गुजरने के ठीक इग्यारह महीने बाद माँ भी छोड़ गयी। मेरे दादा जी दो भाई थे। दोनों के हिस्से में अच्छी-खासी जमीन जायदाद आया था। छोटे दादा जी कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थे। उस वक़्त गाव में बिजली न थी। फिर भी वो रेडिओ और रिकाट सारा दिन सुनते। चाहे इसके लिए उन्हें कितना भी खर्च क्यों न करना पड़े। और इन्हीं शौक में अपनी लगभग जायदाद बेच डाली।और अपने बेटे बाबू के लिए मात्र छः बीघे जमीं ही छोड़ गए। मेरे दादा जी ठीक उनके उल्टा थे। वो सारी जिंदगी बस जमा करना सीखे। और मेरे पिताजी भी कुछ इसी तरह के थे। 
          बाबू दिल के एकदम साफ इंसान थे। उम्र में वो मुझसे सत्रह साल बड़े थे पर पिताजी से छोटे होने के कारण घर में सब उन्हें बाबू ही बुलाते और उसी सुना-सुनी में मैं भी उन्हें बाबू ही कहने लगा। उनके मन में कभी नहीं रहा कि मेरे पिताजी के पास इतना जायदाद है और उनके पास मात्र छः बीघे जमीन। शायद वो जानते थे कि किसी को कुछ मिलता है तो वह उसकी किस्मत से। वो कहते थे.. "किस्मत कभी किसी को धोखा नहीं देती, बस अपनी किस्मत पर भरोसा रखो, सारे काम तुम खुद सही तरीके से कर लोगे। और इसी का श्रेय तुम्हारी किस्मत को जायेगा। 
          मेरे पिताजी की एक दुकान थी।  जब वो नहीं रहे तो दुकान सँभालने की जिम्मेदारी बाबू ने ली। मेरी परवरिस से लेकर पढाई तक का भार उन्होंने बिना उफ़ किये उठाया। बारहवीं पूरी होते ही दुकान की चाबी वो मेरे हाथों में दे दिए। 
          उनकी बेटी जानकी, जिसकी शादी तेरह साल की उम्र में ही कर दी उन्होंने। ये सोच कर कि ज्यादा बड़ी हो गई तो दहेज़ ज्यादा देना पड़ेगा। और बाकि का जीवन दो बैल और छः बीघे जमीन के हवाले कर दी। मुझे यह कहते हुए कि जिंदगी जब कभी किसी गैर के बारे में सोचने का मौका दे, जरूर सोचना।
          आज बाबू की वही बात सच लगने लगा था। मेरे दो बेटे हैं। दोनों आत्मनिर्भर हो गए। ढ़ेर सारी डिग्रीयां हासिल कर बिलायत जा बसे हैं दोनों। कहने को तो मेरे आँखों के तारे हैं वो, पर तारों की तरह इन बूढी आँखों से दूर भी हैं। 
          धन जमा करने की लालच ने मेरी जिंदगी को मुझसे कोसो दूर कर दिया है। अब हालात ऐसे हैं कि जीने के लिए धन तो बेसुमार हैं पर जिंदगी के पल कम। सोचा अमरनाथ की यात्रा कर लूँ, शायद थोड़े और दिनों के लिए अमर हो जाउंगा। पर आये दिन अख़बार में पढता था... "फलां तीर्थ स्थान पर आतंकियों का हमला।" ये सोच मरने से भी डरता था। लेकिन सौ साल से अधिक कौन जीता है। ये सोच कर कि मरने से पहले एक बार हो आऊँ। और अमरनाथ यात्रा पर निकल पड़ा। पर वही हुआ जिसके लिए मन में डर था। 
          उस भिसन तबाही में होने वाले घायलों की सूचि में मैं भी सामिल था। आज सातवां दिन बीत चूका है, पर मेरे दोनों बेटों में से किसी को फुर्सत नहीं है मुझसे मिलने की। आज लग रहा है कि दुनियां का सबसे गरीब इंसान अगर कोई है तो वो मैं हूँ। 

-धीरज चौहान