इसे लम्हों की गुस्ताखी कहें
या फिर ज़माने की जिद्द
कुछ ख़ाब अधूरे रह जाते हैं
कुछ बातें होठों में दबी राज़
कहीं वक़्त शिकायतें छोड़ जाता है
तो कहीं शिकायतों में
वक़्त सिमट कर ख़त्म हो जाता है
है यह भावनाओ की ब्यस्तता
या फिर यही है जीने के सलीक़े
कोई रोता है अपनों के लिए
किसी को अपनों से उब्ब है
कोई रिश्तों में बंधना
घुट्टन समझता है
तो कहीं रिश्ते दम तोड़ रहे हैं
किसी के इंतज़ार में
बोझल हुए जाते हैं आँखे
या फिर उम्र की सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
पलके भी बूढी हो गयी हैं
फिर भी दूर कहीं सन्नाटे में
उम्मीदें गुनगुना रही हैं
लड़खड़ाते जुबां इन मांसल दीवारों से
बाहर निकलने को बेताब हो रही हैं
हमसे ये कहने को
क्यों इच्छाएं बूढी नहीं होती।।
-धीरज चौहान
या फिर ज़माने की जिद्द
कुछ ख़ाब अधूरे रह जाते हैं
कुछ बातें होठों में दबी राज़
कहीं वक़्त शिकायतें छोड़ जाता है
तो कहीं शिकायतों में
वक़्त सिमट कर ख़त्म हो जाता है
है यह भावनाओ की ब्यस्तता
या फिर यही है जीने के सलीक़े
कोई रोता है अपनों के लिए
किसी को अपनों से उब्ब है
कोई रिश्तों में बंधना
घुट्टन समझता है
तो कहीं रिश्ते दम तोड़ रहे हैं
किसी के इंतज़ार में
बोझल हुए जाते हैं आँखे
या फिर उम्र की सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते
पलके भी बूढी हो गयी हैं
फिर भी दूर कहीं सन्नाटे में
उम्मीदें गुनगुना रही हैं
लड़खड़ाते जुबां इन मांसल दीवारों से
बाहर निकलने को बेताब हो रही हैं
हमसे ये कहने को
क्यों इच्छाएं बूढी नहीं होती।।
-धीरज चौहान