Wednesday 16 January 2013

बहुत दूर (Poem)

बहुत दूर 

ये सोच कर
उठा था तेरे दर से
की थाम लोगी हाथ
फिर रोक लोगी मुझे
एक आवाज़ देकर
मैं बढ़ता गया युहीं
आहिस्ता-आहिस्ता लगातार
पर न उठे तेरे हाथ
थामने के लिए
मेरे हाथों को
और न ही तेरे लब
मैं बस बढ़ता ही गया
इक इंतज़ार लेकर
तेरे उठते हाथ का
तेरे आवाज़ का
और अंततः
न हुई कोई आहट
पीछे आते किसी क़दमों के
और न आई कोई आवाज़
और इस तरह
मैं दूर हो चूका था
बहुत दूर
तुमसे और
तेरी आवाज़ से !!!     --चौहान (19-01-2006)